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शर्म / लीलाधर मंडलोई
Kavita Kosh से
आत्मा का अभेद्य कवच टूटता रोज
फैलती पीढियों की लिप्सा
किसी विस्फोट से तय नहीं करता अपनी घृणा
ताकत एक कमाल कमजोरी है कि
राजनीति आकंठ त्याज्य गंध में
समझ नहीं पाते कि इतनी कलावादी
मनुष्य एक घोड़ा कि समायी जिसमें
करोड़ों अणुओं की बेहिसाब शक्ति
बंधा वह लेकिन उनके अस्तबल में
उन गलियारों की पहुंच से बाहर
जहां इशारों में लिखे जाते फैसले
वे लिखे जाते जिन नजीरों से
अर्थ बदल जाते जाति के समीकरण में
युद्धों में काम आए जितने
उनसे अधिक रहे हलाक कानून के बूचड़खाने में
हत्या के सबसे अचूक हथियार की सीध में
सच दुबका रहा एक मेमने की तरह
और उधर सामने सूरज की आंखें
इस इमारत से टकरा के शर्म में गढ़ी जा रही है.