शर्वरी / कुमार विमलेन्दु सिंह
सुषुप्त पड़ी है यह धरा सारी
शशांक हुआ नभ का प्रहरी
सुखद स्वप्नों की सुरभि लिए
अवरोहित हो चुकी है शर्वरी
शांत हो चुके है विहंग भी
मंद आभा में चन्द्र के
वन्य जीव भी स्थिर पड़े है
प्रतीत होते हैं भद्र से
ध्वनि से शून्य, कालिमा से पूर्ण
विचर रही है यह धरणी पर
अभिव्यक्त कर रही है यह स्वयं को
जब विराम है सबकी वाणी पर
व्याकुल है यह विरह की मारी
पग भटक रहे हैं दिशा-दिशा
हर क्षण बढ़ती ही जाती है
इसके अन्तर्मन की तृषा
मिलने को प्रभात से ही
किया है इसने निज तन का प्रसार
निःशब्द है पर क्षिप्रता से
खोज रही है अपना अधिकार
प्रस्तुत करने को प्रिय के समक्ष
संग कई दीप्तियाँ लाई है
निर्जन में निशान्त से मिलने
हर मर्यादा तोड़ कर आई है
थक चुका इसका शरीर अब
आतुर है विश्राम के लिए
पर दृष्टि अब भी लालायित है
मिलन-अवधि के अभिराम के लिए
बस! अब प्रभात आने वाला है
भेद कर तम के उर को
प्रज्वलित करेगा जीवन को
तीव्र करेगा पंक्षी के सुर को
व्याकुल होकर खोजेगा अब
प्रभात भी शर्वरी को
नहीं विचारेगा मित्र को
और न सोचेगा अरि को
हाय! विधि का कैसा यह विधान होगा
शर्वरी नहीं, उसके चिह्न चरण में होंगे
मुखचन्द्र के दर्शन को आतुर होगा प्रभात
किन्तु उसके स्वर ही केवल कर्ण में होंगे
कह उठेगा पीड़ा में
हे शर्वरी! तुम फिर आना
मेरी आभा कि शोभा है तुम में
तुमको है यह बतलाना
जब आएगी शर्वरी तो
ये शब्द उसे मिल जायेंगे
फिर लौटेगी हर्षित होकर
जब जड़ चेतन जग जायेंगे