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शहरी मेढक / राकेश कुमार पटेल

अब बरसात के मौसम में
मल्हार गाने मेढक नहीं आते
क्योंकि वे तो धँस गए पाताल में

अब ज़रा सी फुहार पड़ते ही
चौक पर निकल आते हैं 'घंटाघर के सफ़ेदपोश'
जिन्होंने तालाबों की गहराई में घुस के
बना लिये आशियाने रंग-बिरंगे

म्यूनिस्पैलिटी के सामने वाली सड़क पर
वे गाते हैं मेढकों के सुर में
नए ज़माने का मल्हार राग
लगाकर लाउडस्पीकर

कि साहब ये जो बारिश है
हम मेढकों के ख़िलाफ़
एक गहरी साज़िश है
डूब गया है हमारा सब कुछ

मेढक और बारिश की जंग
अब मेरे शहर की भी ख़्वाहिश है।