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शहर-ए-सुख़न अजीब हो गया है / याक़ूब यावर

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शहर-ए-सुख़न अजीब हो गया है
नाक़िद यहाँ अदीब हो गया है

झूठ इन दिनों उदास है कि सच भी
परवर्दा-ए-सलीब हो गया है

गर्मी से फिर बदन पिघल रहे हैं
शायद कोई क़रीब हो गया है

आबादियों में डूब कर मिरा दिल
जंगल से भी मुहीब हो गया है

क्या क्या गिले नहीं उसे वतन से
‘यावर’ कहाँ ग़रीब हो गया है