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शहर-2 / कुँअर रवीन्द्र
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शहर है कि पसरता जा रहा है
हमारी आँखों में
हमारे सपनों में
अपरिचित होते जा रहे हैं
परिचित चहरे
साँसें पड़ने लगीं हैं कम
दस मंज़िल ऊँची खिड़कियों से
लोगों को दिखते नहीं
ज़मीन पर हम
शहर है कि पसरता जा रहा है
तुम कहते हो
छोड़ो न अपनी ज़मीन