शहर के बीच जो दरिया दिखाई देता है / ज्ञान प्रकाश विवेक

शहर के बीच जो दरिया दिखाई देता है
वो सूख जए तो तन्हा दिखाई देता है

तुम्हारी पार्टी यूँ तो शानदार मगर
हरेक शख़्स अकेला दिखाई देता है

दिए थे ज़ख़्म जो लोगों ने भर गए शायद
मरीज़ आजकल अच्छा दिखाई देता है

बड़ी अदा से छुपाता है दुर्दशा घर की
तुम्हें जो टाट का पर्दा दिखाई देता है

कभी जो चाँद में बुढ़िया दिखाई देती थी
वहाँ पे आजकल धब्बा दिखाई देता है

मैं उसके सामने रखता हूँ भीड़ शब्दों की
वो बेज़ुबान तड़पता दिखाई देता है.

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