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शहर छोड़ चुकें हैं फिर भी / प्रतिमा त्रिपाठी
Kavita Kosh से
शहर छोड़ चुकें हैं फिर भी
एक गली नाम गुनगुनाती है हमारा !
एक घर आवाज़ लगाता है हमें,
एक दरीचे पे आँखें इंतज़ार करती हैं !
एक दीवार हमें खोजने के लिए
अपनी जगह से दरक जाती है !
शहर छोड़ चुके हैं.. फिर भी !