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शहर पहुँचते-पहुँचते / संदीप निर्भय
Kavita Kosh से
मुझे आशीष देते बखत
आँसुओं के साथ
माँ के हिय से निकली प्रार्थना
हम चल पड़े
बतियाते हुए शहर की ओर
शहर पहुँचते-पहुँचते
मैं हो गया मज़दूर
और प्रार्थना हो गई कविता।