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शहर / कौशल किशोर

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मेरा बूढ़ा पिता अभी तक नहीं लौटा
मां छाती पीट रही है
हम बन्द दरवाजों से सटकर खड़े
मौत की खबरों का करते हैं
इन्तजार।

इस शहर के बारे में
इसके पंजों, मुद्राओं, अस्पष्ट चेहरे के बारे में
जानकर भी मैं कुछ नहीं जानता
यह मेरे सीने से गुजरता है
और हम सब
इसके वर्जिज-अवर्जित प्रदेश की सीमाओं से गुजरते हैं
पता नहीं, कौन किधर से गुजरता है
किधर गुम हो जाता है।

स्कूलों में बच्चे
दफ्तरों में बाबू
कारखानों में मजदूर
हाट-बाजारों में गृहणियाँ
सुबह-शाम टहलते बुजुर्ग
सभी हड्डियाँ बेचते हैं
और यन्त्रवत स्थिति में दौड़ते करोड़ों लोग
इन्हीं हड्डियों पर अपनी-अपनी मौत लिए फिरते हैं
एक मौत,
एक गोली,
एक घटना आ चिपकती है
सीने से, रीढ़ से
या मस्तिष्क से या।

ये कैसे लोग हैं इस शहर में
जो चेहरे पर चेहरा
बालों पर बाल
भूखी आंखों पर निराशा लादे हुए
धरती तोड़ने की नहीं
प्रतियोगिता कि भीड़
खड़ी करने की बात करते हैं।

हमारे बच्चे
इस शहर में रहते हुए
बारूद के घरौंदे बनाते हैं
आकाश और ज़मीन के बीच फंसे
बूढ़े इतिहास से लेकर
जर्जर व्यवस्था तक को
बालिग हो रही अपनी मुट्ठियों में
दबोच लेना चाहते हैं
वे कितने निडर हैं
सन सैत्तालीस की
मेहरा गई कारतूसों का पता पूछते हैं
और शहर के अजायबघर के शो-केस में
फंसे बुद्ध और गांधी की मूर्तियों पर
गिर कर छोड़ना चाहते हैं-घ्वस्त।

सोचो, यह कितना दर्दनाक होगा
जब बूढ़े पिता से लेकर
अपने बच्चों के गुम होने की खबरों का
हम कर रहे होंगे इन्तजार
और यह मंज़र कितना भयानक होगा
जब मौत की खबरें हमसे टकरायेंगी
और तब भी नहीं होंगी हमारी आंखें नम
क्रोधाग्नि में नहीं चटकेंगी हमारी हड्डियाँ
सामान्य घटना कि तरह सब होगा सामान्य।

इसीलिए
इस शहर में रहते हुए
अब मैं तोड़ लेना चाहता हूँ
अपनी उन हथेलियों को
काट लेना चाहता हूँ
वह जिह्ना
जो दूसरों को पूजने लगती है
या उनके थूके चाटने लगती है।