भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शहर / सुरेश चंद्रा
Kavita Kosh से
शहर
सुबह चहचहाता है, उम्मीद सा
शहर, दिन के शोर में
कोशिश सा चीखता है
शाम से ही, साध लेता है, चुप्पी, ये शहर
ख़ामोश करता है, नुख्त की सब बोलियाँ
इस शहर के शब औ’ सहर का सिलसिला
मुझ सा ही है सादिक़, और तुम सा ही है !!