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शहर : एक एहसास / देवमणि पांडेय
Kavita Kosh से
सड़क से सागर तक
तनहाई में लिपटा हुआ शहर
तीखे शोरग़ुल में
डूबता उतराता है
भीड़ में रोज़
छिल जाते हैं तन मन
राह चलते अनायास
निगाहें टकराती हैं
और उग आते हैं
उपेक्षा और अपमान के अनगिनत कांटे
आख़िर कभी तो उतरेगा
पराएपन का केंचुल
और जागेगी मन में उम्मीद-
यह समुद्र मेरा है
यह सड़क मेरी है
यह भीड़ मेरी है
और भीड़ की हर आँख में
उभरता अक्स मेरा है