भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शाखे-नाज़ुक पे आशियाना है / बसंत देशमुख

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


रुख़े-तूफ़ान वहशियाना है
शाखे-नाज़ुक पे आशियाना है

मौत आई किराए के घर में
सिर्फ़ दो गज पे मालिकाना है
 
ज़र्रे-ज़र्रे पे ज़लज़ला होगा
ये ख़यालात सूफ़ियाना है

वक़्त सोया है तान के चादर
किधर है पाँव कहाँ सिरहाना है

सिरफिरे लोग जहाँ हैं बसते
उन्ही के दरमियाँ ठिकाना है