भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शान देश की मेट्रो रेल / निशान्त जैन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इठलाती-बलखाती दौड़े
शान देश की मेट्रो रेल।
 
एक बार बैठे जो उसमें,
बैठा ना जाए फिर बस में,
ललचाए मन हर यात्री का,
हो जैसे जादुई खेल।
 
झूम-झूम बस दौड़ी जाए,
पलक झपकते ही पहुँचाए,
क्या शताब्दी और क्या राजधानी
इसके आगे हैं सब फेल।
 
ट्रैफिक का झंझट अब निपटा,
समय बचा और काम भी सिमटा,
सुविधा और तकनीकी का है,
नया-निराला अद्भुत मेल।
 
देख-देख हैं सब हैरान,
रेल में भी इतना आराम
कभी है ऊपर, कभी है नीचे
जैसे दिया किसी ने ठेल।
 
शोर मचाए बिना ये आए
धुआँ उड़ाए बिना ये जाए,
ध्वनि-वायु के प्रदूषणों को,
अब क्यों मोनू-पिंकी झेल?