शाप नहीं मुझको मंगल वरदान चाहिए / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
शाप नहीं मुझको मंगल वरदान चाहिए
स्वयं फूल-सा खिला सदा जीवन-उपवन में
शूल चुभे कितने ही पर परवाह नहीं की,
जग ने मेरा वक्ष छेद अपना वक्ष:स्थल
किया सुशोभित, लेकिन मैंने आह नहीं की।
इसीलिए मैं कहता हूँ मुझको जीवन में
अश्रु नहीं केवल मीठी मुस्कान चाहिए।
जिधर सुन रहा उधर मुझे कवि की वीणा के
तार थके, स्वर हुए मंद, यह सुन पड़ता है,
यौवन में ही मृत्यु और मरघट की सुनकर
सच कहता हूँ मेरा खून उबल पड़ता है।
इसीलिए अनुरोध आज अपने कवि से यह
मृत्यु नहीं मुझको जीवन के गान चाहिए।
बहुत गा चुके? गीत प्रलय के जी भर-भर कर
आज सृजन की बेला, नूतन राग सुनाओ,
बरसो बन शीतल अमृतमय गीतों के घन
धरती की छाती पर जलती आग बुझाओ
नवयुग के नव चित्रों में नवरंग भरो कवि!
नाश नहीं मुझको नूतन निर्माण चाहिए।