भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शाम-ए-ग़म की सहर नहीं होती / इब्ने इंशा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शाम-ए-ग़म की सहर नहीं होती
या हमीं को ख़बर नहीं होती

हम ने सब दुख जहाँ के देखे हैं
बेकली इस क़दर नहीं होती

नाला यूँ ना-रसा नहीं रहता
आह यूँ बे-असर नहीं होती

चाँद है कहकशाँ है तारे हैं
कोई शय नामा-बर नहीं होती

एक जाँ-सोज़ ओ ना-मुराद ख़लिश
इस तरफ़ है उधर नहीं होती

दोस्तों इश्क़ है ख़ता लेकिन
क्या ख़ता दरगुज़र नहीं होती

रात आ कर गुज़र भी जाती है
इक हमारी सहर नहीं होती

बे-क़रारी सही नहीं जाती
ज़िंदगी मुख़्तसर नहीं होती

एक दिन देखने को आ जाते
ये हवस उम्र भर नहीं होती

हुस्न सब को ख़ुदा नहीं देता
हर किसी की नज़र नहीं होती

दिल पियाला नहीं गदाई का
आशिक़ी दर-ब-दर नहीं होती