भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शाम और अवसाद / अपर्णा अनेकवर्णा
Kavita Kosh से
शाम हो चुकी..
उदास चाँद
गोल-गोल और
मुर्दा-सा पीला..
भीतर सोए भेड़िए
जाग उठे..
बदन को ऐंठा
हवाओं को सूँघ कर
पक्का कर लिया..
अवसाद पूरा पक चुका अब
आओ झुण्ड..सब आओ
मुँह उठाएँ और पुकारें
सब मिल कर
अनन्त को अनन्त में..
कुछ तो खर्च कर दें
और यूँ ही बचा लें
ज़िन्दगी अपनी....