शाम तन्हा तो नहीं चाँद सितारे निकले / रवि सिन्हा
शाम तन्हा तो नहीं चाँद सितारे निकले
शब चराग़ाँ<ref>रौशन</ref> जो हुई ख़त ये तुम्हारे निकले
गुम वो लम्हाते-गुज़िश्ता<ref>अतीत की घड़ियाँ</ref> जो फ़रोज़ाँ<ref>प्रकाशमान</ref> थे कभी
हाफ़िज़ा<ref> स्मरण-शक्ति</ref> धुन्ध तो इस धुन्ध में सारे निकले
चुप सी आँखों की वो आवाज़ ज़ेहन में गूँजी
और तक़रीर से ख़ामोश इशारे निकले
कुछ हक़ीक़त तो कुछ इम्कान<ref>सम्भावना</ref> से उम्मीदें थीं
बा'ज़ अरमान तो ख़्वाबों के सहारे निकले
इन अदीबों<ref>साहित्यकारों</ref> में भी तख़्लीक़<ref>सृजन</ref> की क़ुव्वत तो है
इक फ़साने में सुना आप हमारे निकले
शहर क्या छोड़िए क्या लौटिए वीराने को
अहले-वहशत<ref>पागल</ref> भी ख़िरद<ref>बुद्धि</ref> के ही पिटारे निकले
बहुत देखे हैं ख़ुदाई के ख़ुदा जग के फ़रीद<ref>अद्वितीय</ref>
सारे मुख़्तार<ref>स्वतन्त्र </ref> ये हालात के मारे निकले
फ़लसफ़ीं<ref>दार्शनिक</ref> लाख फ़लकसैर<ref>आकाशगामी</ref> फ़लकताज़<ref>आकाश जीत लेने वाले</ref> हुए
उनकी तालीम से ताक़त के इदारे<ref>संस्थान</ref> निकले
हो रहो फिर किसी सूफ़ी किसी अहमक़ के मुरीद
इश्तिराकी<ref>साम्यवादी</ref> तो ये बाज़ार पे वारे निकले
ज़ख़्म ऐसे के हों अफ़लाक<ref>आसमानों</ref> में सूराख़े-सियाह
तड़प ऐसी कि दहानों से शरारे निकले
आतिशे-कुन<ref>सृष्टि उत्पन्न करने वाली आग</ref> की शरारत की सज़ा कुछ भी नहीं
बज़्मे-हस्ती<ref>दुनिया</ref> के सभी दोष हमारे निकले