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शायद / नाज़िम हिक़मत
Kavita Kosh से
शायद मैं
उस दिन के आने के
बहुत पहले
पुल के पार लटक जाऊँगा —
सड़क पर पड़ती हुई मेरी छाया दिखेगी।
शायद मैं
उस दिन के आने के
बहुत बाद
अपनी घुटी दाढ़ी पर कुछ सफ़ेद बाल उगा
ज़िन्दा रह जाऊँगा।
और मैं
उस दिन के बहुत बाद
अगर कहीं ज़िन्दा ही रह गया
तो मैं दीवारों के सहारे बैठ
नगर के चौकों में
छुट्टियों की शामों को वायलिन बजाऊँगा
उन वृद्धों के लिए जो मेरी ही तरह
अन्तिम संघर्ष के बाद भी बचे रहेंगे
अद्भुत्त रात्रि में पटरियों पर चारों ओर आलोक-स्तम्भ होंगे,
और नए जन के पद्चापों के
नए गीत छन्द होंगे।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : चन्द्रबली सिंह