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शायर, जोगी, ज्योतिषी / राजेन्द्र नाथ रहबर / हुस्ने-नज़र / रतन पंडोरवी

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मेरे उस्ताद साहिब शिरोमणि साहित्यकार स्व. पं. रलाराम 'रतन' पंडोरवी 7 जुलाई 1907 ई. को एक ग़रीब मगर अपने हाल में संतुष्ट ब्राह्मण पं. मथुरा दास भारद्वाज खट शास्त्री के घर गांव पंडोरी घुमान तहसील बटाला ज़िला गुरदासपुर पंजाब में पैदा हुए। फरवरी 1922 में उन्होंने फ़ारसी मिडल और अप्रैल 1925 ई. में नार्मल की परीक्षा पास की और प्राइमरी स्कूल बोलेवाल में सहायक अध्यापक नियुक्त हुए। मुलाज़मत मिल जाने पर हुसूले-इल्म-ओ-फ़न की प्यास और भी तेज़ हो गई। पचास-पचास मील पैदल सफ़र कर के किताब उधार लाते और नक़्ल कर के वापस कर आते। किताबों की तलाश के शौक़ ने उन्हें लाहौर ओरिएंटल कॉलेज के प्रोफेसर "शादां बिलग्रामी" की ख़िदमत में पहुँचाया। इसी तरह प्रोफेसर बीरभान कालिया ने भी तालीमी रहनुमाई का बीड़ा उठाया। आखिर इन करम-फ़रमाओं की मेहरबानी और मुआवनते-ख़ुदाबंदी के सहारे 1932 ई. में "मुंशी फ़ाज़िल" की परीक्षा भी पास कर ली और 1936 ई. में "अदीब फ़ाज़िल" की मंज़िल भी मार ली और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड हाई स्कूल श्रीहरगोबिंदपुर तहसील बटाला में फारसी अध्यापक नियुक्त हुए। 1962 ई. में इसी स्कूल से रिटायर हुए। आठवीं जमाअत ही से रतन साहिब को अपने दिल के जज़्बात शेर की सूरत में पेश करने का शौक़ दामनगीर हो गया था। उन दिनों शिक्षा के पाठ्यक्रम की किताबों में जनाब उफुक़ लखनवी शामिल था। बचपन ही से रतन साहिब के दिल में ये लगन पैदा हो गई थी कि वो भी हज़रते-उफुक़ की तरह ही शेर कहेंगे। चुनांचे पहला शेर जो ज़बान से निकला ये था।

- ऐ बशर किस हस्ती-ए-बातिल पे तुझ को नाज़ है
 है अदम अंजाम इस का और फ़ना आग़ाज़ है।


बा-कायदा मुलाज़मत मिल जाने पर आतिशे-शौक़ को और भी हवा मिली तो जनाब "जोश मलसियानी" के मशवरा पर जनाब "दिल शाहजहानपुरी" की शागिर्दी इख़्तियार की। स्व. दिल ह्र्तकम्प की बीमारी में ग्रस्त होने तक निरन्तर रतन साहिब को फ़ैज़-याब फरमाते रहे। रतन साहिब उस वक़्त हज़रते-दिल के शागिर्दों में शामिल हुए जब वो मारिफ़त व हक़ाइक़, फलसफ़ा व तसव्वुफ़ के मज़ामीन को एक खास रानाई से ग़ज़ल में समो रहे थे। रतन साहिब तो आग़ाज़ ही से इरफान व वेदान्त के दिलदादा थे। इस लिए उन के कलाम में कुछ उन की तबीयत का रुज़हान और कुछ उस्ताद के दौरे-आखिर का आरिफ़ाना रंग पैदा हो गया। क़ाबिले-ज़िक्र है कि जनाब दिल शाहज़हानपुरी के रोग ग्रस्त हो जाने के बाद रतन साहिब ने पंजाब के प्रसिद्ध उस्ताद उर्दू शायर जनाब जोश मलसियानी से बहुत साल इस्लाह ली। जनाब दिल शाहजहानपुरी के लिए रतन साहिब के दिल में जो इज़्ज़त और अक़ीदत थी उस का इज़हार उन्हीने अपने शेरों में अक्सर मक़ामात पर किया है। फरमाते हैं:-

-हो गया दिल में सवा ज़ौक़ ग़ज़ल गोई का
 हज़रते-दिल की रतन ने जो इनायत देखी

-जनाबे-दिल के फैज़ाने-सुख़न पर दिल तसद्दुक है
रतन उस्ताद के क़दमों पे गिर कर ख़ाके-पा बन जा।


रतन साहिब ने किबला दिल मरहूम के मतरूकात का लिहाज़ रखते हुए सख़्त पाबंदी के साथ शेर कहने की कोशिश की। उन्होंने जो कुछ कहा अपने इष्टदेव को सामने रख कर कहा। बक़ौल रतन साहिब बाज़ अशआर मुराकबा (ध्यान अवस्था) बल्कि मुकाशफा) (आत्म शक्ति द्वारा वो कुछ देखना, जो दूसरे नहीं देख सकते) के आलम में कहे गये। जैसे:-

-सर दरे-यार पे रख कर न उठाया हम ने
 बन्दगी में भी इक ऐजाज़ दिखाया हम ने

- लुत्फ़े-ख़ुदी यही है कि शाने-बक़ा रहूँ
 इंसान के लिबास में बन कर ख़ुदा रहूँ।

- जब तुझ को मेरे सामने आने से आ'र है
 किस हौसले पे तुझको ख़ुदा मानता रहूँ

-इक तू कि मिरे दिल ही में छुप कर पड़ा रहे
 इक मैं कि हर चहार तरफ ढूंढता रहूँ।


रतन साहिब ने अश्लीलता और मुआमला बंदी से बचने की कोशिश की। शेर की तारीफ़ फरमाते हुए रतन साहिब लिखते हैं-

" शायरी जुज़्वीस्ते-पैग़म्बरी के कौल की सदाक़त इसी में है कि शेर दिल की गहराइयों से निकला हो। उस के हमगीर व हमः रस असरात व एहसासात व मुहाकात के अंदाज़ बदर्जा उत्तम मिलते हों। वो वालिहाना महब्बत का मुहरर्क, अख़्लिकियात का ज़िक्रे-तऱीक, इश्के-पाक का हादी, फ़ज़ाइले-अरबआ के ज़ेवर से मुतजल्ली, उय्यूब से पाक और मुहासिन से मुज़य्यिन हो कर मर्कजे-हर नज़र बन जाये। उस में एक वहबी जज़्बा मुज़मिर और क़ुदरती कशिश पिंहाँ हो। इंसान को अफ़रात व तफरीत से निकाल कर सिराते-मुस्तक़ीम पर गामज़न होने की तौफ़ीक़ अता करे। तंग दिली, पस्त निगाही की जगह बलन्द नज़री फराख़दिली और वसीअ-उल-मशरबी का मलक़्कन हो। इस जज़्बात को जब लुत्फ़े-मुहाविरा ,हुस्ने-ज़बान और जोशे-बयान का लिबास पहना कर वेश किया जाये तो शेर हक़ीक़ी तौर पर शेर कहलाने का मुस्तहिक़ होता है"। रतन पंडोरवी साहिब ने इन्हीं ख़यालात के ज़ेरे-असर इरफ़ान व तसव्वुफ़, इश्के-हक़ीक़ी और अख़लाक़ व फलसफा को पेश पेश रक्खा। उन्होंने बड़ी तादाद में फ़ारसी कलाम भी कहा है।

रतन पंडोरवी साहिब की प्रकाशित पुस्तकों की संख्या दो दर्जन है। जिन में 9 कविता संग्रह भी शामिल हैं। इन किताबों पर बिहार उर्दू अकादमी, बंगाल उर्दू अकादमी, उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी और भाषा विभाग पंजाब की तरफ से एवार्ड दिये गये। भाषा विभाग पंजाब की तरफ़ से रतन साहिब को शिरोमणि साहित्यकार का ख़िताब, नकदी शॉल और प्रमाणपत्र भेंट किये गये। "बिहिश्ते-नज़र" को साल 1974 ई. का बेहतरीन कविता संग्रह क़रार देते हुए इनआम से नवाज़ा गया।

पं. रतन पंडोरवी भारत के उस्ताद उर्दू शायरों और तीन दर्जन के क़रीब उर्दू के खुश फ़िक्र शेरीन के गुरु तो थे ही, वह ज्योतिष विद्या में भी गहरी रुचि रखते थे। ज्योतिष विद्या सीखने का शौक़ उन के दिल में लड़कपन से ही उत्पन्न गया था। समय पा कर वह बहुत अच्छे ज्योतिषी बन गये। उन्हों ने बड़ी लगन और निष्ठा से यह विद्या सीखी। दूर दूर से लोग उन से अपने प्रश्नों के उत्तर पूछने आते थे। उन के बताये हुए उत्तर सही साबित होते थे। इस प्रकार उन की शुहरत दूर दूर तक फैल गई और लोग उन पर असीम श्रद्धा रखने लगे। वह साधुओं की सी ज़िन्दगी बसर करते थे और क़स्बा श्री हरगोबिन्दपुर तहसील बटाला ज़िला गुरदासपुर (पंजाब) के एक शिव मंदिर में रहते थे। वह स्वयं भी शिव भक्त थे। दरिया का किनारा होने के कारण वहां दूर दूर तक ऊंचा ऊंचा बेला उगा रहता था। वीरानी का यह आलम था कि सुब्ह के समय जंगली मोर शिव मंदिर की मुंडेरों पर आ बैठते थे। रतन साहिब सुब्ह साढ़े तीन बजे के क़रीब उठ जाते थे और बेले में स्थित पगडंडियों से होते हुए दरिया के किनारे पहुँचते और ज़रूरी हाजात से निवृत हो कर लौटते और मंदिर के एकांत में योग साधना करते और ध्यान में उतरते।

इसी शिव मंदिर में मैं ने अक्सर उस्ताद साहिब के क़दमों में बैठ कर शायरी की शिक्षा प्राप्त की।रतन साहिब के भतीजे श्री निशि कांत भारद्वाज जो अब चामुंडा स्वामी के नाम से जाने जाते हैं भी वहां आ जाते और अपने ताया जी पं. रतन पंडोरवी से जोतिष विद्या सीखते। पं. निशि कांत भारद्वाज ने न केवल ज्योतिष विद्या सीखी बल्कि हस्बे-तौफ़ीक़ उसे आगे भी बढ़ाया। रतन साहिब की जूतियां सीधी करते करते जो कुछ मैं उन से सीख पाया उसे उन के आदेशानुसार शायरों की अगली नस्ल तक पहुँचाया।

रतन साहिब बड़े विनम्र स्वभाव के थे और उन की हर अदा से झलकती थी। यही वजह है कि ज़िन्दगी में जो व्यक्ति एक बार उन से मिला, उन्हीं का हो गया। वह बड़े धार्मिक विचारों के थे। साहित्यिक क्षेत्रों में उन्हें "जोगी शायर" के नाम से याद किया जाता था। अंतर्राष्टीय ख्याति प्राप्त शायर जनाब मुनव्वर लखनवी लिखते हैं, " रतन साहिब में हमारे मुक़द्दस तरीन क़दीम ऋषियों का खुलूस और पाकीज़गी है"। इस के अतिरिक्त उन का यह शेर भी इसी बात की और संकेत करता है-

नाज़िल उस पर ख़बर हुई होगी
यह है पंडोरी का कोई जोगी
   
(मुनव्वर लखनवी)


दर अस्ल रतन साहिब की शायरी और ज्योतिष ने एक योगी की सिद्धि का दर्जा इख़्तियार कर लिया था। उन में देवताओं की सी सादगी थी। तमाम उम्र दिन में एक ही वक़्त खाना खाया। भगवान शिव की आराधना में उन का ज़ियादातर वक़्त गुज़रता था। उन्होंने अपने इष्ट देव को सामने रख कर रोज़ो-नियाज़ की बातें कीं और मजाज़ से हक़ीक़त को नुमायां करने की कोशिश की।

वक़्त वक़्त पर रतन साहिब को मुख़्तलिफ़ अदबी अंजुमनों की तरफ से खिताबात से नवाज़ा गया, "कला दर्पण" चंडीगढ़ की तरफ से 18 मई 1980 ई. को टैगोर थिएटर चंडीगढ़ में "जश्ने-रतन पंडोरवी" मनाया गया। जिस की अध्यक्षता उस वक़्त के चीफ कमिश्नर श्री जे. सी. अग्रवाल आई. ए.एस ने की। इस मौक़ा पर रतन साहिब को "अबुल बलाग़त" का ख़िताब दिया गया और नकदी, शॉल वगैरह भेंट किये गये। 1934 ई. में बज़्मे-अदब लाहौर के ज़ेरे-एहतिमाम जनाब ताजवर नजीबाबादी की अध्यक्षता में जलसा हुआ, जिस में रतन साहिब को नब्बाज़े-सुख़न और मुमताज़-उल-शुअरा के खिताबात से नवाज़ा गया। 1958 ई. में बज़्मे-अदब जाइस (यू. पी) की तरफ से लिसान-उल-हिन्द और रास-उल-अदबा के खिताबात अता हुए। 3 अप्रैल 1983 ई. को पठानकोट के टेम्प्रेंस हाल में जश्ने-रतन पंडोरवी मनाया गया।

रतन साहिब ने उर्दू की अदबी पत्रिकाओं की बतौर ऑनरेरी सम्पादक कलमी खिदमात अंजाम दीं। उन के नाम हैं माहनामा "रहनुमाए-तालीम" लाहौर/देहली, माहनामा "मोमिन" बदायूं, माहनामा "दिल" बरेली और "अहसन" रामपुर।

क़ाबिले-ज़िक्र है कि 19 मई 1981 ई. को शाहजहानपुर में जलसा हुआ, जिस की अध्यक्षता दिल शाहजहानपुरी के बेटे शब्बीर हसन खाँ एडवोकेट शाहजहानपुर का जा-नशीन (उत्तराधिकारी) मुक़र्रर किया गया।

2 मई 1998 ई. को गवर्नमेंट सीनियर सेकेंडरी स्कूल फॉर गर्ल्ज पठानकोट में ओल्ड स्टूडेंट्स एसोसिएशन की जानिब से "जश्ने-रतन पंडोरवी" मनाया गया, जिस में मुशायरा का भी एहतिमाम किया गया। इस अवसर र पंजाब सरकार के मंत्री माननीय मास्टर मोहन लाल जी और सरदार सेवा सिंह सेखवां विशेष मेहमान के तौर पर शामिल हुए। इस के अतिरिक्त पं. निशि कांत भारद्वाज भी बतौर ख़ास मेहमान शामिल हुए।

रतन साहिब 16 दिसम्बर 1989 ई. को पंडोरी को हमेशा के लिए खैरबाद कह पर पठानकोट में मुस्तक़िल तौर पर बस गये थे। मगर उन की उम्र ने यायावरी नहीं की और 4 नवम्बर 1990 को शाम चार बज कर चालीस मिनट पर पठानकोट में स्वर्गवास हुए, मैं और मेरी अहलिया उस वक़्त उन के पास मौजूद थे। अगले दिन उन का दाह संस्कार कर दिया गया।
"ख़ुदा बख्शे बहुत सी खूबियां थी मरने वाले में"

रतन साहिब के चंद अशआर मुलाहज़ा हों जिन में शायर की रूह मुख़्तलिफ़ रंगों में जलवागर है:-

- दम भर में बुलबुले का घरौंदा बिगड़ गया
 कहता था किस हवा में कि फ़ानी नहीं हूँ मैं

- ख़ौफ़ क्या मझ को किसी के खंज़रे-खूं रेज़ का
 मौत का आना है तब्दीले-मकां मेरे लिए

- ये कुदरत ये तनफ़्फुर ज़िन्दगी के साथ है
- एक हो जाती है मिल कर अपने बेगाने की ख़ाक

- निशाने-सरबलंदी ऐ रतन पस्ती ने मिलती है
 बसर करता हूँ अपनी ज़िन्दगी में ख़ाकसारों में

- सितारा मेरी किस्मत का कुछ इस अंदाज़ से टूटा
 कि सातों आसमां सहमे हुए मालूम होते हैं।

- इस का ये मतलब क़ियामत अब दुबारा आयेगी
 कह गये हैं बातों बातों में वो फिर आने की बात

- रात महकी, चांदनी छटकी, फ़ज़ा रौशन हुई
 चाहता हूँ उन को ऐसे में बुला कर देख लूं।
सुन रहा हूँ उनका मिलना जुज़ फ़ना मुमकिन नहीं
आज उन को ये तमाशा भी दिखा कर देख लूं।

- बर्गे-गुल की ज़बां से सुनता हूँ
 चहचके अन्दलीबे-फ़ितरत के।

रतन साहिब नज़्म के मैदान में भी माहिराना अंदाज़ में गुज़रे हैं। उन्हें नात लिखने की सआदत भी नसीब हुई है। रुसूल-इस्लाम आं-हज़रत की तारीफ में निहायत खुलूस-ओ-अक़ीदत के साथ नज़्म लिखी है-

आया है लब पे नाम रसूले-करीम का
जल्वा तड़प उठा है रियाज़े-नईम का।

रतन साहिब ने गायत्री मंत्र और भगवत गीता का नज़्म में अनुवाद किया है।