भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शिकवा किस किस से करें सब ही सितमगर निकले / रिंकी सिंह 'साहिबा'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शिकवा किस-किस से करें सब ही सितमगर निकले,
नए दुश्मन तो पुराने से भी बढ़कर निकले।

दिल का आलम कि कोई रास न आया इसको,
जाने कितने ही हसीं प्यार के मंज़र निकले।

सामने से तो बहुत प्यार जताया सबने,
मुड़ के देखा तो कई पीठ पर खंज़र निकले।

आसमां को मैं अगर अपनी हथेली पर रखूँ,
तब कहीं जा के मेरे क़द के बराबर निकले।

ख़ाक मलते हुए चलती है जहाँ की अज़मत,
इश्क़ के कूचे से जब कोई कलंदर निकले।

कुछ भी हासिल नहीं होता है किनारे पर कभी,
डूब जाएँ जो समंदर में तो गौहर निकले।

जब से वीरान हुई बस्ती मेरे सपनों की,
मेरी आँखों से कई सुर्ख़ समंदर निकले।

इसी उम्मीद पर जीते हैं जहाँ में हम लोग,
कल का दिन आज की इस शाम से बेहतर निकले।

'साहिबा' सींचते हैं ख़ून ए जिगर से जिसको,
है ये मुमकिन के वही फूल भी पत्थर निकले।