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शिप्रा की लहरें / प्रतिभा सक्सेना

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लहर स्वर में गूँजती अविरल,तरल बन
किस अमर संगीत की प्रतिध्वनि अमर हो,!
बाजती रहती अनश्वर रागिनी
कलकल स्वरों मे चिर- मधुर हो!
सजल झंकृत उर्मि- तारों मे अलौकिक
राग बजते जा रहे हैं,
रश्मि की मृदु उँगलियाँ छू
झिलमलाते नीर मे नव चित्र बनते जा रहे हैं!



यह पुनीता, छू न पाईं आज तक,
जिसको जगत की कालिमायें,
दिव्य कलकल के स्वरों में भर न पाईं
विश्व की दुर्वासनायें!



झनझना उठते हृदय के तार, वाणी मुग्ध मौना,
बाँध लूँ इन स्वरों में किस भाँति तेरा स्वर सलोना!
बज रहा संगीत अक्षय तृप्ति इससे मिल न पाये,
कर्ण से टकरा हृदय को छू न पा, ये फिर न जाये!



अंतरिक्ष बिखेर देता तारकों के फूल झिलमिल,
नाच उठतीं लोल लहरें किलक उठता नीर निर्मल!
गगन से नक्षत्र झरझर नीर में आ छिप गये हैं
बीन लेने को जिन्हें कर रश्मियों के बढ रहे हैं!



इन गहन गहराइयों की माप लेती रश्मि-माला,
देख हँसता चाँद, खिलती चाँदनी, चाँदी भरा यह विश्व सारा!
बाँध लेती चंचला से बाहुओँ में रश्मि तारे उर्मि बाला!
है यही नन्दन विपिन की रानियों की नृत्यशाला!



नाचती हैं अप्सरायें ताल सब गंधर्व देते,
नूपुरों की मन्द रुनझुन, पायलों के स्वर बिछे से!
स्वर्ग है यह, स्वर्ण लहरों मे छलकती देव-वारुणि,
खनखनातीं सोमरस की प्यलियाँ, हीकरमयी.नवज्योति धारिणि!



युगल तट के वृक्ष करते भेंट सुरभित सुमनमाला,
अंक भरने दौड पडती चपल चंचल उर्मि- बाला!
तरल लहरों में प्रतिक्षण जागता नूतन उजाला,
कौन सी वह शक्ति करती सदा संचालन तुम्हारा!



कौन वह अज्ञात इतना रूप जो अविरल बहाता,
कौन जीवन सा मधुर साँसें सदा तेरी जगाता!
शान्त धरणी में बिछी रहती सुज्योत्स्ना शुभ्र गहरी,
देखते हैं वृक्ष विस्मित से, क्षितिज बन मौन प्रहरी!



यह अपरिमित रूप-श्री, बुझती नहीं मेरी पिपासा,
हृदय लोभी, देख यह सुषमा, रहा जाता ठगा सा!
झलमलाती ऊर्मियाँ या स्वयं विधि की चित्र रेखा,
किस नयन ने आज तक भी रूप वह अपरूप देखा!



एक ही आभास जिसका स्वप्न सीमाहीन बुनता,
एक ही आह्वान जिसका प्राण-मन मे ज्योति भरता!
नीर पावन निष्कलुष वन देवियों का दिव्य दर्पण,
हहर कर वनराजि करती नवल विकसित पुष्प अर्पण!



प्रकृति की श्री झाँकती है, बिंब स्थिर रह न पाता,
रूप जो क्षण-क्षण बदलता, उर्मि कण-कण मे समाता!
तरल स्वर में स्वर मिला कर बोलती आवाज कोई,
पट हटा फेनिल, रुपहले झाँक जाती आँख कोई!



मुक्त तोरों भरे नभ की झिलमिलाती दीपमाला,
नित्य ही मनती दिवाली, नित्य ही जगता उजाला!
यामिनी जब उतरती है बाँध कर नक्षत्र नूपुर
झुर्मुटों की ओट से जब झाँकता चुप-चुप विभाकर!



तभी क्षिप्रा की लहर गाती मिलन संगीत अक्षय,
दूर तरु से कूक उठती कोकिला की तान मधुमय!
पश्चिमी नभ पर सजीले रंग आ देते बिदाई
लौट जातीं स्वर्ण- किरणें चूम वृक्षों की उँचाई!



सान्ध्य नभ के मंच पर आ अप्सरायें नृत्य करतीं,
ले सुरंगी वस्त्र शोभित, नित्य नूतन रूप धरतीं,
तब लहर के पालने में सप्तरंगी मेघ सोते,
गगन के प्रतिबिंब शतशत बार जल के तल सँजोते



जा रही है हर लहर आनन्द की वीणा बजा कर,
तिमिर पथ के पार कोई मधुर सा संदेस पाकर!
हीर कण ले लिख रही है, कौन यह रमणीय बाला,
लहर की गति है न चंचल, यह नियति की वर्णमाला!



युगयुगों से यहाँ बिखरे दीखते हैं स्वप्न स्वर्णिम,
मुखर हो उठते यहीं शत शत भ्रमर के मंजु गुंजन!
वार कुंकुम खोलती प्राची क्षितिज प्रत्यूष बेला,
जब गगन के पार से आ झाँकता दिनकर अकेला!



जब अरुण होकर दिशायें स्वर्ण पानी से महातीं,
अंशुमाली की अँगुलियाँ जब धरा के कण जगातीं,
मोतियों के हार ले तब विहँसती लहरें सजीली,
खिलखिलाती, झिलमिलाती खेलती रहतीं हठीली!



खो गईं सदियाँ इन्हीं मे, सो गईं अनगिन निशायें
झाँकता रहता गगन भी, डोलती रहती दिशायें!
रुक न पाया नीर चंचल थम न पाईँ ये लहरियाँ
पिघलती प्रतिपल रहेंगी ये दमकती शुभ्र मणियाँ!



प्राण मेरे बाँध लो चंचल लहर चल बंधनों से
पुनः नव जीवन मिले इन लहरते स्पन्दनों से!
मोह है मिटती लहर ले, स्नेह क्षिप्रा नीर से है,
राग से अनुराग भी, अपनत्व क्षिप्रा तीर से है!



चाँदनी के अंक में कल्लोल करता मुक्त शैशव,
दे रहा कब से निमंत्रण मोतियों से सिक्त वैभव!
यही जादू भरी लहरें डाल देती मोहिनी सी,
अमिट कर फिर छोड जातीं रूप-श्री की चाँदनी सी!



अरे क्षिप्रा की लहर, ओ स्वर्ण स्वप्नों की कहानी,
काल- चक्रों में सुरक्षित, विगत की भोली निशानी 1
कल्पना में बँध न पाये, भाव में चित्रित न होगा,
चित्र खीँचूँ मै भला क्या, शब्द मे चित्रित न होगा!



अंक मे ले लो मुझे, इन आँसुओं मे झिलमिलाओ,
लहर में श्वासें मिला लो, कल्पना के पास आओ!
बाँध पायेंगी न लहरें मुक्त, युग की शृंखलायें
स्नेह आलिंगन तुम्हार पा अपरिमित शान्ति पायें!



पिघलती करुणामयी जलराशि कण-कण मे समाये,
इन तरंगों का मधुर आलोक अणुअणु को जगाये!