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शिला कोई कहीं टूटी नहीं है / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
शिला कोई कहीं टूटी नहीं है
नदी फिर किसलिये बहती नहीं है
टिकी जब आसमाँ पे हो नजर तो
किसी भी बात से झुकती नहीं है
लगे पर तोलने हैं अब परिन्दे
उड़ानों की फिकर होती नहीं है
बहुत है आरजू करवट बदलती
मगर पूरी कभी होती नहीं है
हुए तुम बेवफ़ा खातिर तुम्हारे
हमारे दिल मे अब तल्ख़ी नहीं है
पसारे हाथ दर दर फिर रहे हैं
करें क्या भीख भी मिलती नहीं है
बहुत हैं थक चुके चलकर अकेले
मिला तुम सा कोई साथी नहीं है
तुम्हारा नाम ले कर जी रहे हैं
मगर दुनियाँ हमे भाती नहीं है
किसी को राह कोई क्या दिखाये
अँधेरा है शमा जलती नहीं है