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शिल्पी / शंख घोष / जयश्री पुरवार
Kavita Kosh से
आधी रोशनी रात के चेहरे पर है
और आधी अपने ही पास निशब्द है पड़ी
तुम आज भी दिशाविहीन हो, नही जानते हो कि
सितारे कहाँ मरते है या फिर कहाँ जीते हैं !
कभी चलकर जाते हो जैसे विशुद्ध वामन
समूची देह सिर्फ शब्दों से घिरी हुई
सिरहाने पर पाकर जाग्रत वसन्त को
या कभी विशालकाय अपने ही प्रेत को ।
ध्वनि और रंग से मिला हुआ निरंजन श्वास
कुछ उड़कर चले जाते हैं कुछ पड़े रहते हैं —
अपने को कितना जानते हो तुम ? कितना जानते हो ?
इसलिए तुम वही हो जो मिडिया बनाती है तुम्हें !
मूल बांग्ला से अनुवाद : जयश्री पुरवार