शिव स्तवन / शिशुपाल सिंह यादव ‘मुकुंद’
आदि-देव,महादेव शांति शुद्ध नीलकण्ठ, चन्द्र-भाल, जटा-जूट गंग बलिहारी है
उर में जनेऊ सर्पराज का सुशोभित है, विकत स्वरूप की अखण्ड ज्योति जारी है
निज -जन पर अभिनव नव नेह युत,आशुतोष की कृपा अतुलनीय भारी है
शंकर सहानुभूति सहज मुकुंद आज, डम-डम डमरू का शब्दतोषकारी है
ब्रम्ह हो अजेय निराकार महाकाल तुम, अलख-अभेद किन्तु घट-घट बासी हो
वन्द्य विश्वनाथ ! कोटि सूर्य की प्रभा से युक्त,विश्व रूप शंकर विमल अविनाशी हो
कली काल बीच निज लीला दिखलाने हेतु,मेरे भगवान तुम गंगा और काशी हो
राम-उर बासी प्रेम पावन प्रकाशवां धन्य है,'मुकुंद' तुम सहज उदासी हो
खोल दे त्रिनेत्र कली=काम जल क्षार होवे,दीन-बंधु !दीनानाथ !! दैन्य दुःख वर दे
भीरुता भगा दे देव !वीरता जगा दे उर,भोले नाथ ! प्रचण्ड भावना भव्य भर दे
शंकर भवानी -पति दीं निज सेवक के,शीश पाए वार्ड हस्त नाथ !निज भर दे
विषम कराल-काल कंटक सा भासता है, शूल पाणि!जन के 'मुकुंद' शूल हर दे
भूतनाथ संग खेल खेलने को रात दिन,कामना पवित्र मम बहुत बन जाऊ मैं
काशीपति विश्वनाथ साथ रह संयम से चारु चरणोंदक को बार-बार पाऊ मैं
भूल के प्रवंचना सकल जग ती तल की, वेद के स्वरूप शिव नित्य उर लाऊं मैं
हर -हर घोष से 'मुकुंद' तोश पाऊ और,शंकर का सेवक सदैव ही कहाऊ मैं
शंकर सहज धन,शंकर सहज मन,शंकर भजन बिन सब सुख बाद है
आज भूत -भवन की पावन कृपा से मिला,बहुत दिनों बाद जीवन का स्वाद है
देख लो तरंग सत संग का समीप ही में, कैसा उठा एकाएक अनहद नाद है
शंम्भू पूण्य प्रेम में सुदीक्षित सरल मन, आज तो मुकुंद यह ब्रम्ह का प्रसाद है