भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शिशिर की कुहेलिका / बरीस पास्तेरनाक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुहासे के दिनों में धुएँ से होकर आने वाली
सुबह की किरणें लगती हैं ज्योति-स्तम्भ-सी ।
धुंध में मेरी आकृति दिखती है
एक हिल गए फ़ोटोग्राफ़-सी ।

दूर के दरख़्त देख पाएँगे मुझे मुश्किल से
जब तक पसर नहीं जाती है विजित होकर किरण,
कुहेलिका को चीर कर
मैदान में, झील के पास ।

कुहासे में चलता कोई मुसाफिर
पहचाना जाता है पास आने पर ही ।
श्वेत हिम से आच्छादित राजपथ पर चलने में
                          गुजगुज लगता है
मानो वृक्ष- वसा की चटाई पर चलते हों ।

तुहिन ने सिकुड़े चमड़े जैसा होकर ढक लिया है राजपथ को
हवा में मिथ्यापन है रंजित कपोलों-सा ।
धरती सीत्कारती हुई बीमार है हफ़्तों से
गोलालु के सड़े डंठल की दुर्गंध से ।


अँग्रेज़ी भाषा से अनुवाद : अनुरंजन प्रसाद सिंह