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शिशिर की रात (2) / महेन्द्र भटनागर

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स्तब्ध, गीली, शुभ्र धुँधली रात है,
बह रहा शीतल शिशिर का वात है !

छा रहा कुहरा धुआँ-सा दूर तक,
छिप गया है चन्द्रमा का नूर तक !

हो गयी फीकी नशीली ज्योत्स्ना,
व्योम मानों शीत का बंदी बना !

घोंसलों से मूक चिड़ियाँ झाँकतीं,
नींद में डूबी हुईं कुछ आँकतीं !

शांत धरती पर खड़ी ज्यों भित्तियाँ
जम गयी प्रत्येक तरु की पत्तियाँ !

आज चंचल धूल भी चुपचाप है,
उच्च टूटे शृंग पर हिमताप है,

बर्फ़ का तूफ़ान आएगा अभी,
श्वेत चादर-सी बिछाएगा अभी !

बन्द कर लो ये झरोखे द्वार सब,
आज तो उमड़े हृदय का प्यार सब !

रात लम्बी है सबेरा दूर है,
क्या करें, यह मन बड़ा मजबूर है !

इस तरह अब और शरमाओ नहीं,
पास आओ, दूर यों जाओ नहीं !

रूठने का आज यह अवसर नहीं
ज़िन्दगी इस रात से बेहतर नहीं !