भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शिशिर : एक / नंद चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहाड़ की पीठ पर बैठा है
शिशिर का सूरज
हाट-बाजार के दिन रहते
घर पहुँचने की जल्दी में हैं सब
वे भी
जिन के नजदीक हैं घर तो भी

नदी के पश्चिम मोड़ पर
हवा से बात करने के लिए
रूकी हुई है दिवसान्त की आभा

घुर्र-घुर्र करती रूक गयी है
गाँव को जाती आखिरी बस
एक उदास प्रतिध्वनि के साथ

कन्धों पर उनकी यात्राएँ अभी भी हैं
जो उन्होंने निश्चित नहीं की थीं
किसी भी दिन नहीं सोचा
वे व्यर्थ गयीं
या यह कि वे सतरंगी होतीं
खुले रास्तों पर
चन्द्रमा के साथ
धीरे-धीरे विस्मय और अन्दाज से चलते
मुकाम पर पहुँचे तक
डरी ठिठुरती चिड़ियायें
उन्हें पहचान कर
वृ़क्षों पर लौट गयी थीं
लोग वे खबरें सुन चुके थे
वही बार-बार उस तरह की
उस तरह की
जब उद्घोषिका कहती थी-
बर्फ पड़ने के बारे में
फिर थोड़ी सुन्दर लगती
शुभरात्रि।