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शीत के घन अम्बर को चीर / अज्ञेय
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शीत के घन अम्बर को चीर
स्नेह-स्पर्श-सा बहता आया सुरभित मलय-समीर।
वन की वल्लरियाँ फिर फूलीं, सुरभि-हिंडोलों ही पर झूलीं
उल्लस स्वर से फिर-फिर बोला पीपल-तरु पर कीर!
नीरसता भी हुई पल्लवित, मेरा अंग-अंग मधु-प्लावित,
मद-रस से भर हरी हो गयी मेरे उर की पीर।
तेरा प्यार, सुरभि-सा कोमल, अंग-राग-सा छाया परिमल,
आयी हूँ अवगाहन करने स्नेह-तरी के तीर!
शीत-शिशिर के सूखे सपने, फिर अब क्यों दिन होंगे अपने?
अब मधु ही है प्राण हमारा हम-तुम एक शरीर!
शीत के घन अम्बर को चीर!
1935