भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शीश-मौर बाँधने लगा फागुन / शिव बहादुर सिंह भदौरिया
Kavita Kosh से
आमों के शीश-
मौर बाँधने लगा फागुन ।
शून्य की शिलाओं से-
टकराकर ऊब गई,
रंगहीन चाह
नए रंगों में डूब गई,
कोई मन-
वृंदावन,
कहाँ तक पढ़े निर्गुन ।
खेतों से-
फिर फैली वासंती बाँहें,
गोपियाँ सुगंधों की,
रोक रही राहें,
देखो भ्रमरावलियाँ -
कौन-सी
बजाएँ धुन ।
बाँसों वाली छाया
देहरी बुहार गई,
मुट्ठी भर धूल, हवा,
कपड़ों पर मार गई,
मौसम में-
अपना घर भूलने लगे पाहुन ।