शून्य घट / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
गड़े शून्य घट में कैसे संशय के तिरछे शूल?
अगर-मगर की बदाबदी से
ऊँचे जाकर सर टकराया;
सत्य-झूठ के मर्म-भेद का
रंग-ढंग पर समझ न पाया!
पाण्डु वर्ण हो गए गुलाबी अरमानों के फूल!
गड़े शून्य घट में कैसे संशय के तिरछे शूल?
हाड़-चाम पर चोंच चलाकर
मूढ़ मन्द-मति वायस आया;
मानसरोवर जाकर उसने
राजहंस का गुण दिखलाया!
अन्तर का यह छन्द-भंग है किस पिंगल का मूल?
गड़े शून्य घट में कैसे संशय के तिरछे शूल?
पत्थर में पारस मर्मीले
सीपी में मोती चमकीले
किस छूमन्तर से कीचड़ में
लहराए पंकज रंगीले।
भेद सके तो भेदे कोई भेद-व्यूह यह स्थूल!
गड़े शून्य घट में कैसे संशय के तिरछे शूल?
वन का तोता, घर में खांेता
कठघेरे में सिर धुन रोता;
दुपहरिया के सूरज का
जग में क्या कोई साथी होता?
खौला कर खारे जल दिल का सींचा टेढ़ बबूल!
गड़े शून्य घट में कैसे संशय के तिरछे शूल?
हवा पाल में लगी न, नौका
बही धार में उल्टी, चौंका;
भँवर-जाल में फँस जाने की
चिन्ता की भाथी ने धौंका।
डर के मारे काँपे उठा रे निश्चय का मस्तूल!
गड़े शून्य घट में कैसे संशय के तिरछे शूल?
ऊँची कथनी, छूँछी करनी
गहरी बाधा की वैतरनी;
जीवन की झीनी चाद की
टेढ़ी तानी, सीधी भरनी।
मन की बहती गंगा उल्टी गई दिशा को भूल!
गड़े शून्य घट में कैसे संशय के तिरछे शूल?
सूजी कह लो, जो छोर सूझ का
रख अपने में छोड़ न दे;
वह बखिया क्या, टाँका कह लो
जो चिथड़े का मुँह जोड़ न दे?
टुकड़े होकर टस से टूटे ऐसी सिलन फिजूल।
गड़े शून्य घट में कैसे संशय के तिरछे शूल?
(रचना-काल: दिसम्बर, 1943। ‘विशाल भारत’, फरवरी, 1944 में प्रकाशित)