शूली पर ईश्वर / राकेश पाठक
कुछ गाओ गुनगुनाओ
एक कविता सुनाओ
देश पर, समाज पर,
सरकटी लाश के फैले व्यापार पर
सत्ता गहते लोगों के लोलुप अधिकार पर या
राजनीती में फैले, डूबे आकंठ भ्रष्टाचार पर
सुनाओ किसने उतारी ये गाँधी जी की धोती
चश्मे और डंडे की कैसी लगी बोली?
खादी और ख़ाकी के रहते
नंगे होते बापू पर
बोलो तुम कुछ कह पाओगे?
या गोडसे बनकर तुम भी बन्दूक चलाओगे?
कलम भी हुई कमीन अब
लोकतंत्र हुई ग़मगीन अब
बंधक बन गए लोकतंत्र पर
क्या कविता कोई गाओगे?
या मेज़ थपथपाकर संसद में
कौरव की सरकार बनाओगे?
संसद में ताकत के दम पर
जीत रहे बेईमान हैं
नाज़ नाक को ताक पर रखकर
बेच रहे हिंदुस्तान हैं
इन चोरों को नंगा कर दे
क्या ऐसी कविता गाओगे?
आज गाँवों में फैला सन्नाटा
दुश्मन बनकर भाई ने लूटा
जात धर्म के परदे में
हमने राम-रहीम को लूटा
जनतंत्र है बनी बेचारन
बंधक बनकर खादी की
बंधन से ये मुक्त हो जाये
क्या ऐसी कविता गाओगे?
हिंसा के दलदल में डूबा
लोकतंत्र शर्मशार है
व्यभिचारों की मंडी में
नित होता नया व्यापार है
कब तक यूँ ही लटकाओगे
शूली पर ईश्वर को?
कलयुग का रावण मर जाये
क्या ऐसी कविता गाओगे?
नेताओं के इस नगरी में
धूर्तो का बोलबाला है
कपटी काटे फसल झूठ की
कंस यहाँ रखवाला है
मिले कंस से त्राण हमें
क्या ऐसी कविता गाओगे?
क्या ऐसी कविता सुनाओगे?