भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शेख़ साहब से रस्मो-राह न की / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
Kavita Kosh से
शैख साहब से रस्मो-राह न की
शुक्र है ज़िन्दगी तबाह न की
तुझको देखा तो सैर-चस्म हुए
तुझको चाहा तो और चाह न की
तेरे दस्ते-सितम का इज्ज़ नहीं
दिल ही काफ़िर था जिसने आह न की
थे शबे-हिज़्र काम और बहुत
हमने फ़िक्रे-दिले-तबाह न की
कौन क़ातिल बचा है शहर में फ़ैज़
जिससे यारों ने रस्मो-राह न की