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शेरू / पवन चौहान

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(1)

उसकी मौजूदगी
देती है हौसला उन्हे
हर डर से
लड़ने की ताकत
हर बार की उसकी भौंक
तसल्ली देती है उन्हे
करती है चौकन्ना
सुलाती है चैन की नींद
‘शेरु’ उनका सच्चा मित्र,
हमदर्द, वफादार सिपाही है

(2)

शेरु ने अब तक काट खाया है
उनके ही कई
रिश्तेदार, मित्र, पड़ोसियों को
इस जुर्म में कि वे आए थे
उनसे मिलने
उनका दुख-दर्द बांटने ही


(3)

शेरु दिवार है
इसमें लगे जहरीले कांटे
सताते रहते हैं
हर चुभने वाले को
जगाए रखते हैं उनमें
पागल होने का डर
बढ़ाते रहते हैं
पेट की पीड़ा
सुई की हर चुभन के साथ

(4)

मालिक घुमा लाता है शेरु को
हर रोज अपनी गाड़ी में
नहीं निकाल पाता जरा सा वक्त
अपनी बिमार ताई के लिए
बाजारु मंहगे भोजन से लबालब रहता है
शेरु का उदर हमेशा
नहीं है एक रुपया भी तो सिर्फ
एक गरीब भूखे बच्चे के लिए
शेरु को बनाकर ढाल
मालिक छुप गया है

इस ढाल में लगे काँटों की चुभन ने
भूला दिया है कइयों को
इस घर का रास्ता
मालिक खुश है इस भ्रम में कि
अब उसकी हर वस्तु सुरक्षित है
चोरों की नजर से
वह आज़ाद है हर डर से
कोरी कल्पनाओं में व्यस्त वह
नहीं पलटना चाहता हकीकत का एक भी पन्ना
जहां धीरे-धीरे बंद कर रहा है वह
अपने और अपनों के लिए किवाड़
अपने समाज इस दुनिया के।