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शोकगीत / अलेक्सान्दर पूश्किन
Kavita Kosh से
मेरे उन्मादी वर्षों की वह लुप्त हँसी और आनन्द
मुझे घेरता है जैसे सुबह के बाद धुआँ भरा-सा।
वह बीता दुख उतना नहीं जितना मेरी मदिरा है,
जो समय के साथ और नशीली होती जाती है।
अब सामने की राह कितनी उदास है,
सुबह के समुद्र-पथ पर परिश्रम और पीड़ा छाई जाती है।
और फिर भी मृत्यु के विचार से, मेरे दोस्त, मैं घबराता हूँ,
मैं जीना चाहता हूँ — दुख उठाना और सोचना चाहता हूँ
स्वाद चाहता हूँ नेह, शोक और उथल-पुथल का,
आनन्दातिरेक और मधुर आलोड़न का,
मस्ती में डूब, कल्पनाओं पर सवार
और उसकी छवियों पर जी भर रोना चाहता हूँ...
और प्रेम का अन्तिम आवेग, विदा वेला में उसकी कोमल मुस्कान,
मेरे उदास अन्त को फिर भी कम शोकपूर्ण बना देगी।
1830
अँग्रेज़ी से अनुवाद : शंकर शरण
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