शोर को
हम गीत में बदलें।
इन निर्रथक
शब्द-ढूहों का
खुरदरापन हो घटे कुछ तो
उमस से
दम घोंटते दिन थे
सुखद लम्हों में बँटे कुछ तो
चुप्पियों का
यह विषैलापन
लयों के नवनीत में बदले।
क्यों डुबाएँ
यन्त्र-कोलाहल
इस धरा-गन्धर्व के स्वर को
ज्योति-कन्याओ
उतर नभ से
रश्मियों की रागिनी भर दो
दृष्टियों का
यह कसैलापन
स्निग्धामय प्रीत में बदलें।