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श्रम का शोर / महेश कुमार केशरी

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निकल पड़ा है मजदूरों
का झुँड मिल से छुट्टी के
बाद और टुनटुनाती
हुई साईकिलों की घंँटियों
का शोर एक संगीत पैदा कर
रहा है, जैसे किसी झरने का
मद्घिम शोर

धान रोपती स्त्रियाँ
बातें करते-करते
आपस में हँसती हैं
 खिलखिलाकर तो
बजने लगता है एक संगीत
चहुँ दिशाओं में
हल-गैंता-कुदाल चलाता
किसान करता है जब
ठक-ठक की आवाज
तो, बजने लगता है,
धरती के भीतर कोई संगीत
और, धरती बिखेरती है,
अपनी मुस्कुराहट में अन्न
के दाने

पत्थर तोड़ता मजदूर
जब हथौड़े से ठांँय-ठाँय
करता है, तब उसके
भीतर बजता है कोई संगीत
और आकार लेने लगता है
उसका श्रम पसीना
बनकर

और, जब कोई शिल्पकार
पत्थर को तराश रहा होता
है, अपनी छैनी-हथौड़ी से
तब भी होती है मद्धिम
-मद्धिम आवाज
और, आकर लेने
लगती है कोई आकृति
और उसके मन में
बजने लगता है एक संगीत
कुछ नया गढ़ने का

कल-कारखानों से निकलने
वाली मशीनों का शोर
भी एक लयबद्ध संगीत की तरह
बजता है कहीं मजदूरों
के भीतर
क्योंकि, यही श्रम देता है
मुँह को निवाला, रहने को
छत। और एक बेहतर कल

श्रम का शोर एक संगीत की तरह
बजता है, हमारे भीतर
और, दुनिया को बनाता है
सुंदर अतीव सुंदर