श्री राधामाधव / छन्द 11-20 / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
मायापति जग संपति रावरी काहे को माखन-चोर भये?
मोर बने नित मोर -कुटी पर मोह न काहे न मोर भये?
श्यामा के संग में राजत श्यामजू ज्ञान के जोर अँजोर भये।
राधिका कौ चित चोरि के मोहन मोहन ते चितचोर भये।11।
लाल लसैं कर पल्लव लाल के लाल छटा पद -कंजन की।
लाल बन्यों पटुका नँदलाल को लाल बनी छवि कंगन की।
लालहि लाल लसैं अधराध र लालहि माल है लालन की।
लाल के लाल कपोलन की लखि लाली लजात गुलाबन की।12।
भूलि कै आइ फँस्यों जगलाल मैं काह कहौ अब तौ घनश्याम मैं।
प्रान के गोप हैं टेरि रहे दधि प्रेम कौ चाहति जीवनधाम मैं |
खोटो-खरो, बिगरो-सँवरो हौं परो पद-पंकज कै गुरुग्राम मैं।
बल स्वरूप अनूप सखा बनि आनि बसौ हिय के ब्रजधाम मैं।13।
दिन-रैन मैं सोवति-जागति मैं मन औरु को ध्यान करै न सखी!
रही चाह विषेष है शेष यहै फिरि के भवसिन्धु परै न सखी!
गुरु की न कृपा मिलिहै जब लौं, तब लौं जग मोह झरै न सखी!
जब लौं हरि आनि बसैं न हिये तब लौं हिय धीर धरै न सखी!।14।
बूझति कोउ न सूझति पंथ परयो मझधार महादुखदाई।
मोकहुँ नैकु सहारो नहीं कहुँ जइ कहाँ कहौ टेर लगाई।
प्रान पियासे पुकारत, पंथजोहारत नैन रहे अकुलाई।
मोह के कूप गभीर परयो अब आनि उबारौ तुम्हैं यदुराई!।15।
आइ बस्यो जब ते इन नैनन रूसि गयी निदिया कहुँ मोरी।
काह कहौं अब टूटत नाँहि मनोहर श्याम के प्रेम की डोरी।
मोहि सतावत आवत नाहि ठगौं नित बातैं बनाइकै कोरी।
माखन चोरी करी सो करी सखी! भाजि गयो करि कै चितचोरी।16।
रास करैं हरि आनन मैं हम आँखिन सौं छवि पान करैं।
भक्ति भरैं उर मैं मनमोहन नैनन प्रेम बखान करैं
दान करैं हरि दीनन कौ नित सन्त समाज कौ मान करैं।
गान करैं हरिनाम सबै मनमोहन कौ नित ध्यान करैं।17।
जागत-सोवत ध्यान धरैं पलऊ सुधि दीन की नाँहि बिसारहिं।
धाइ परैं हरि छाँड़ि उपानिँह दीन-दुखी जब रोइ पुकारहिं।
टूटी मड़ैया लखैं हरि दास की आइ कै आपुहि आप सँवारहिं।
प्रेम की डोरी बँधेई रहैं हरि जाति-कुजाति कबौं न बिचारहिं।18।
मोहि रह्यो धन धाम मैं काम मैं श्याम सौं प्रीति प्रधान कियो नहि।
नेह लगायो न मोहन सौं कछु मोह को धूरि समान कियो नहि।
आजु विलाप करै मन क्यों जब श्याम सरूप को ध्यान कियो नहि।
प्रान के दीप को नेह चुक्यो कबहूँ हरि कौ गुनगान कियो नहि।19।
नाचति-गावति भौतिकता अब प्रेम कौ सूख्यो सरोवरू है।
घोर अशान्ति कै क्रान्ति मची मही-अम्बर डोलति भूधरू है।
गंग की धार प्रदूषण राजति साँसन मैं विष कौ घरू है।
मोहन! आनि सँवारौ तुम्हैं जगजात जरो-सो ग्रसो ज्वरू है।20।