श्री राधामाधव / छन्द 31-40 / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
मोह छली है बली मन मोहन सौं मन कौ नित खीचति है।
देखन कौ अखियाँ उचकैं मन मूढ़ करै कर मीचति हैं।
पातकी नैक न छाड़हि मोहि सदा भव-मेह सौं सीचति है।
मोहन नाम तिहारो हि मोह- कौ प्रेम के सिन्धु में फींचति है।31।
सूने परे मन के जमुनातट भाव-कदम्ब की नीरव साखैं।
प्रेम के मोर बियोगी भये दृग सूने झुकीयै रहै सदा पाँखैं।
श्याम तरंग उठै जमुना-जल औचककि निहारहिं आँखैं।
श्याम न देखि जगै जमुना दृग भाव जगै ठग-ठाकुर भाषैं |32|
प्रेम की रीति अखण्ड अनन्त अपार कहैं कवि कोविद ज्ञानी।
पावन को करै पावन प्रेम ही प्रेम की कीरति लोक-बखानी।
प्रेम मैं द्वेत विसर्जिति ह्वै गयो प्रानन प्रेम-सुगन्धि समानी।
राधिका राधिका श्याम रटैं,रटैं श्याम जू-श्याम जू राधिकारानी।33।
घायल है मन मोर अधीर है वैद मोर की पाँखन वारे।
जानत हौं नहि पूजन वन्दन नामहु नैकु न जात उचारे।
औगुन सौं भरी है रसना गुन जान्यो नही सबही विधि हारे।
आनि बसौ इन नैनन मैं अब देवकीनन्दन! नन्ददुलारे!।34।
गावति गीता बखानति बेद-पुरान सवै अति लागति बौने।
सूर कहैं, रसखान कहैं घनानंद छन्द रचाई सलौने।
ज्ञान- निधान गनेश कहैं सब शब्द हमारे भये अब मौने।
सारद सेस करै गुनगान न पारहिं भेद चलैं पथ कौने?।35।
शान्ति सुधा बरसै उर-अन्तर जोति जगै जब मोहन नाम की।
भीतर-बाहर गूँजि उठै जब बाँसुरी नन्द के नन्दन श्याम की।
पवन-पावन ह्वै हुलसै हियौ दालि गलाये गलै नहि काम की।
हारे-थके भवबन्ध छुटैं टुटै -गाँठिन-गाँठिन मोहिनी दाम की।36।
अब काहे को देर लगाइ रह्यो प्रभु! बेगि हरौ सगरे भव बन्धन।
रही माया है डोलि दुधारी लिए हरि! काहे न धारत चक्र सुदर्शन।
सब ढूँढि रहे तुमकौ मुरलीधर! धाय कदम्ब की डारन-डारन।
तन-पंजर मैं अब दूखत प्रान, है लूटि लियो मन कौं मनमोहन!।37।
खेल मैं नुपूर की झनकार सौं कोटि रचै चतुरानन कौ।
लागैं अनन्त ठगे से दिवाकर राधिका कै लखि आनन कौ।
साँसन बीति चतुर्जुग जात है कल्प अनेक घटैं छन कौ।
राधिका सृष्टि की साधिका शक्ति है , मोहति है मन-मोहन कौ।38।
देखिबे के बदि मोहन कौं मन मेरो सदा अकुलाति रहै।
श्यामहि की मृदु बाँसुरी कौ सुनि कै हियरा हुलसाति रहै।
भीजौं सदा भरि भूख निरन्तर नेहन की बरसाति रहै।
प्रेम सुधारस घोरि दै कानन प्रानन लौं रसियाति रहै।39।
वसुदेव सुदेवकी कम्पित गातपुकारत ज्योति ज्यों आँधरो है।
सिसु गोद मैं, काल कराल है द्वार पै दम्पति कौं मन बावरो है |
प्रगटे हरि दिव्य सरूप धरे मुख मंजुल मंगल साँवरो है।
वहि जेलि मैं ज्यौं बरसातिहु मैं उयो सारद पूरो सुधाकरो है।40।