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श्री राधामाधव / छन्द 71-80 / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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नहि कौन सो माथ सनाथ भयो सखि! आइ के जो पद-कंज पर्’यो।
कर कंज ते मानौ कृपा पसरै लखि दीनन दारिद-सोक हर्’यो।
मुख-कंज तै ज्योति प्रभा विकसै दृग-कंज तै प्रेम-पराग झरयो।
हिय-कंज मैं मंजु लस्यो छवि-कंज मनोभव भंज प्रभात कर्’यो।71।

ध्यान लगाए न लागति है मन मोहन आपुहि ध्यान लगावति।
देखति दीन दसा कुदसा करिकै करुनाकर आपु खवावति।
घोरति है रस प्रेम कौ आखर- आखर माँहि जौ आपु विराजति।
छन्द रचावत राधिका-माधव मेहि तौ नैकु निमित्त बनावति।72।

ऐसो गुलाल मल्यो नॅदलालकि लाल परी हिय लौ हरि सारी।
ऐसी न होरी भयी कबहूँ लगी प्रानन लौं रँग की पिचकारी।
छूट्यो गुलाल न लाल छुट्यो मन मोहन मोहन की गति न्यारी।
आठहु अंग रँगी हरि रंग मैं जीवन के सब रंग बिसारी।73।

प्रेम के रंग जुरै हिय संग उमंग तरंग जगावति भारी।
एकहि रंग रँग्यो ब्रजमण्डल दूसरो रंग रँग्यो न बिहारी।
बूड़ि गयो मन श्याम के रंग मैं जीवन के सब काज बिसारी।
राधिका के रँग श्याम रँगे रँगी श्याम के रंग मैं राधिका प्यारी।74।

साहन के तुम साह बने नहि त्यागि सके दधिमाखन चोरी।
हौं तो रह्यों मतिमन्द न जानि सक्यों कछु रीति अलौकिक तोरी।
जानि कै दीन-दसा निज दास की दीठि की घुमाइ दै थोरी।
घोर अनीति को छाइ रह्यो तम मोहन! धाइ जाराइ दै होरी।75।
लूटति कालु छिनै-छिनु जीवन सॉसन-सॉसन आयु घटाई।
घोर घमण्डु न टूटि रह्यो रह्यो सम्पति कै ममता अधिकाई।
आपनो-आपनो मानि रह्यो नहिनो रंचहु देति दिखाई।
आपनो है हरि के न सिवा हरि धाई कै लेति हैं गोद उठाई।76।

पावन-भक्ति कौ भाव बस्यो हरि-कीर्तन मैं सुरसाज बस्यो है।
ध्यान मैं दीनन कौ उपकार है साधु बस्यो सुरकाज बस्यो है।
प्रेम बस्यो हरि कै अँग अंग मैं नैनन मैं रसराज बस्यो है।
ऐसो बिहारी बस्यो रसना सखि! प्रानन में ब्रजराज बस्यो है।77।

नाथ! पुकारि रहयौं कबतै बसे पाहन देस मैं, कौनु सुनैया?
हौ तुमही गुरु, मातु,पिता,सखा, इष्टि अनिष्ट के दूरि करैया।
आनि उबारहु रावरे सावरे बूड़ति जाति है आपु,-नबैया।
जाऊँ कहाँ तजि कै पद-पंकज आसरो नेकु तिहारो कन्हैया!।78।

जीवन धार न रोके रुकै, पल एक खड़े सकुचाति बनै नहि।
काँकर,पाथर, कंटक,धूरि भर्’यो मग पार है जात बनै नहि।
ऐसो फँस्यो भवपंथ पै नैकु हसै न बनै अँसुआत बनै नहि।
नाम लिये बिन मोहन कौ, तरुरानन कौ हरियात बनै नहि।79।

राग जगावत हैं कबहूँ, कबहूँ हरि देत विराग जगाई।
रास करैं मन-मन्दिर मैं कबहूँ विरहागि हैं देत लगाई।
मोह मैं डारति बोरति हैं कबहूँ हरि मोह कौ देत जराई।
कोटि उपाय करे न मिलैं, कबहूँ बिन मोल मिलै जदुराई।80।