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श्री राधामाधव / छन्द 81-90 / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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पलहू न परै कल, बावरी हौं निज नाम लिखाइहौं जोगिन मैं।
मन धीर धरै न गुहार करै दिन जागति जागति रातिन मैं।
सुधि लीन्हीं कहाँ ब्रजराज अबै हिय जात जरो बरसातिन मैं।
नभ पै धिरि आये कछू बदरा घिरि आये कछू-कछू आँखिन मैं।81।

काह करौं सखि! प्रीति कर्’यो मनोग-वियोग के बीच फँस्यो है।
पीवति हौं अँसुआन कौ सागरो साँवरो रावरो जानि लस्यो है।
बाढ़ति है विषु नैकु घटै नहि मोहि बियोग-भुजंग डस्यो है।
जीवति हौं एहि ते हिय मैं मन-मोहन नाम कौ मन्त्र बस्यो है।82।

एकहि बार लखे पद-पंकज रावरे जीवन धन्य बन्यो।
भीजि गये मन-प्रान सुधारस माधव अंगहि-अंग सन्यो।
घायल पै कियो घायल साँवरे प्रेम के तीर पै तीर हन्यो।
मोहन आवति हैं पहिले कि सिधारति प्रान हैं ठान ठन्यो।83।

बहुतेरी कही मन-मूरख सौं न सुनै न गुनै न शुभाशुभ मानै।
सतमारग कौ न गहै पलऊ झट भाजि अधोगति की गति ठानै।
तुम्हरे पद पंकज छाड़ि,इतै उतै घूमत है पर दोष बखानै।
अब नाथ! अनाथ पै कीजै कृपा कछु भक्ति औ प्रेम कौ भाव न जानै।84।

प्रेम कियो नहि नेम कियो नहि संजम सील सबै बिसराई।
साधु सरूप की सेवा कियो नहि दम्भ मैं फूलि रह्यो गरुआई।
दान, दया, करुना, ममता, उपकार छुयो नहिं रंच भलाई।
नाथ! सनाथ करौ तुमहे पद-पंकज छाड़ि कहाँ अब जाई?।85।

ज्ञानी बड़े-बड़े जोगी,जती ऋषिं पण्डित थाह लगाइ सके नहि।
शेष कहैं, चतुरानन गावँहि आदि ते अन्त लौं गाइ सके नहि।
सारद नारद नाम गिनै पर आजु लौं ठीक गिनाइ सके नहि।
नेतिय नेति कहैं सब बेद अभेद कौ भेद बताइ सके नहि।86।

दीन-दुखीन कौ काज कियो तिन काज महान कियो न कियो।
जानि लियो खुद कौ जिन हैं जग की पहिचान कियो न कियो।
दान कियो अपनो हरि कौ तिन और कौ दान कियो न कियो।
पान कियो गुरु कौ चरणामृत तौ सुधा पान कियो न कियो।87।

रस घोरति तोरति पाप सबै हरि प्रेम जगावति भावति बाँसुरी।
सुभ गावति श्यामहि श्याम सदा मनमोहन मोहन टेरति बाँसुरी ।
कबहूँ हिय पीर सुवावति है कबहू हिय पीर जगावति बाँसुरी।
सुर साधति कानन तैं सगरे अरू कानन लौं सुर साधति बाँसुरी।88।

मुरली सुनी नारद ने हरि प्रेम कौ अच्छर पाठ पढ्यो है।
या मुरली सुनि सूर मनोहर भक्ति कौ पाइ गयन्द चढ्यो है।
या मुरली सुनि कै मन मोहन संकर के मन मोद मढ्यो है।
या मुरली सुनिबे कौ सखी!मन पीर जगी उर दाह बढ्यो है।89।

नाम सुनै निज कानन तैं विकसै , हुलसै , पुलकै हरि आनन।
श्यामहि श्याम लसै मन , मेहन राधिका रूप जगै तब प्रानन।
अंगहि अंग उमंग झरै जब बोलि उठै मन मोहन मोहन।
प्रेम अगाध जगै हिय मैं सुर बाँसुरी के जब आवत कानन।90।