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श्री रामगीता / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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एक दिवस श्री राम ने, सहित स्नेह सन्मान।
किया राजदरबार में, पुरजन का आह्वान।।

गुरू विप्र, पुरवासी सकल आए तभी दरबार में,
रधुवर मधुर बोले वचन सबसे सने रसधार में।

पुरवासियों! ममता नहीं मेरे कथन में लेश है,
प्रभुता नहीं, यह नीतियुत कल्याणमय उपदेश है।

जो कुछ कहूँ मैं बात वह सब ध्यान से सुन लीजिए,
फिर जो तुम्हें हिकर लगे, बस आचरण वह कीजिए।

सेवक तथा प्रियतम उसी को हूँ सदा मैं जानता,
जो दूर रहकर दम्भ से आदेश मेरा मानता।
 
यदि नीति से हटकर कहँू मैं बात मिथ्या जोड़ कर,
तो बीच में ही रोक तुम देना मुझे भय छोड़ कर।

मिलता मनुज तन भाग्य से सद्ग्रंथ बतलाते सभी,
नर देह पाने के लिए रहते रतसते देव भी।

है धाम साधन का यही, अपवर्ग का यह द्वारा है,
पाकर इसे करता न जो अपना स्वयं उद्धार है।

परलोक में दुख भोगता वह पीटता निज भाल को,
मिथ्या लगाता दोष ईश्वर, कर्म का अरू काल को।

आसक्ति विषयों में रहे, यह फल मनुज तन का न है,
सुरलोक का भी स्वल्प सुख भारी दुखों की खान है।

नरजन्म पाकर जो सदा रहते विषय-लवली हैं,
बदले सुधा के प्राप्त करते विष, महामतिहीन हैं।

फिरता भटकता जीव चौरासी, फँसा जग जाल में,
गुण काल कर्म स्वभाव से घिर कर सदा सब काल में।

करके कृपा ईश्वर कभी भर कर सहज शुचि स्नेह में,
फिर भेजते उस जीव को जग बीच हैं नर देह में।

भवसिन्धु के हित पोत नर जीवन सुदृढ़ सुखमूल है,
मेरा अनुग्रह सर्वदा समझो मरूत अनुकूल है।
 
नरदेह रूपी पोत के सद्गुरू सदा केवट सबल,
होते सुलभ यों जीव को दुर्लभ कठिन साधन सकल।

पाकर सुअवसर भी न होता मुक्त जो भवताप से,
मतिमन्द होता युक्त है वह आत्महत्या पाप से।

परलोक में, इहलोक में सुख प्राप्त जो करना चहो,
सुनकर वचन मेरे, उन्हें तुम साथ दृढ़ता के गहो।

आगम निगम की स्पष्ट शब्दों में यही अभिव्यक्ति है,
सबसे सुगम, सबसे सुखद बस एक मेरी भक्ति है।

बुधजन सभी यह जानते, है ज्ञान का मारगा अगम,
साधन कठिन जिसमें समाहित विघ्न-बाधाएँ विषम।

श्रम कष्ट से यदि सिद्धि पा लेता कभी कोई कहीं,
हो भक्ति से जो हीन प्रिय वह नर मुझे होता नहीं।

स्वाधीन मेरी भक्ति भरती सौख्य का रस-रंग है,
पाता नहीं प्राणी इसे कोई बिना सत्संग है।

पर पुण्य संचित के बिना मिलते न जग में संत हैं,
सत्संग बिन भवरोग मिट पाते नहीं बेअन्त हैं।

बस एक ही पुण्य शुचितम मानवोचित कर्म है,
मन-क्रम-वचन से विप्र पद पूजा यही सद्धर्म है।

छल त्याग, द्विजसेवा समझते जो सतत् सुखमूल हैं,
रहते सदा मुनि, देव उनके सर्वथा अनुकूल हैं।

कर जोड़ कहता हूँ सभी से, बात मेरी मान लें,
करता प्रकट सम्मुख सभी के गुप्त मत यह जान लें।

होकर भजन में लीन जो शिव की शरण जाता नहीं,
यह बात निश्चित जान लो, वह भक्ति मम पाता नहीं।

सोचो कठिनता क्या भला मम भक्तिपथ के पास है,
इसमें न कोई जोग, जप, मख, यम, नियम, उपवास है।

मन में सहज शुचि सरलता हो, छल-कपट से दूर हो,
जो कुछ मिले, संतोष उतने लाभ में भरपूर हो।

बन दास मेरा लिप्त हो संसार की यदि आस में,
सोचो भला उस दास के दृढ़ता कहाँ विश्वास में।

है बात इतनी कहूँ क्या और मैं विस्तार से,
वश हो सदा रहता इसी, मैं आचरण-व्यवहार से।

किंचित न मन में बैर-विग्रह, आश या भवत्रास हो,
जकड़े हुए जिसको नहीं आसक्ति, ममता-पाश हो।

होवे अमानी अनघ उर जिसके न रंचक रोष है,
मम भक्ति ही है दक्ष उसको, हर दिशा सुखकोष है।

जिसको रहे वसुयाम केवल कामना सत्संग की,
पल के लिए भी न इच्छा स्वर्ग या अपवर्ग की।

जो भक्ति को सुख-साध्य जग में श्रेष्ठतम हो मानता,
किंचित कुतर्कों से भरी मन में न हो अज्ञानता।

मद मान ममताहीन करता पान इस मकरंद का,
केवल उसी को भान भक्ति परमानंद का।

सुन रघुनंदन के वचन, होकर मुदित महान।
शीश झुका सबने किया, निज घर को प्रस्थान।।