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श्री ’ललिता’ लावण्य ललित / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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श्री ’ललिता’ लावण्य ललित सखि गोरोचन-‌आभा-जुत अंग।
विद्युत‌-वर्णि निकुज निवासिनि, वसन रुचिर शिखिपुच्छ सुरङङ्ग॥
इन्द्रजाल-निपुणा, नित करती परम स्वादु ताबूल प्रदान।
कुसुम-कला-कुशला रचती कल कुसुम-निकेतन कुसुम-वितान॥
सखी ’विशाखा’ विद्युद्‌्‌-वर्णा, रहती बादल-वर्णा कुज।
तारा प्रभा सुवसन सुशोभित, मन नित मगन श्याम-पद-कंज॥
कर्पूरादि सुगन्ध-द्रव्य युत लेपन करती सुन्दर अंग।
बूटे-बेल बनाती, रचती चित्र विविध रुचि अँग-प्रत्यङङ्ग॥
’चित्रा’ अंग-कान्ति केसर-सी, काँच-प्रभा-से वसन ललाम।
कुज-रङङ्ग किजल्क कलित अति, शोभामय सब अंग सुठाम॥
विविध विचित्र वसन-‌आभूषणसे करती सुन्दर सिंगार।
करती सांकेतिक अनेक देशोंकी भाषाका व्यवहार॥
सखी ’इन्दुलेखा’ शुचि करती शुभ्र-वर्ण शुभ कुज-निवास।
अंग-कान्ति हरताल-सदृश, रँग दाडिम-कुसुम वसन सुखरास॥
करती नृत्य विचित्र भङिङ्गमा संयुत नित नूतन अभिराम।
गायन-विद्या-निपुणा, व्रजकी ?यात गोपसुन्दरी ललाम॥
’चपकलता’ कान्ति चपा-सी, कुज तपे सोनेके रङङ्ग।
नीलकण्ठ-पक्षीके रँगके रुचिर वसन धारे शुचि अंग॥
चावभरे चित चँवर डुलाती अविरत नित कर-कमल उदार।
द्यूत-पण्डिता, विविध कला‌ओं से करती सुन्दर सिंगार॥
सखी ’रङङ्गदेवी’ बसती अति रुचिर निकुज, वर्ण जो श्याम।
कान्ति कमल-केसर-सी शोभित जवा-कुसुम-रँग वसन ललाम॥
नित्य लगाती रुचि कर-चरणोंमें यावक अतिशय अभिराम।
आस्था अति त्यौहार-व्रतोंमें, कला-कुशल शुचि शोभाधाम॥
सखी ’तुङङ्गविद्या’ अति शोभित कान्ति चन्द्र, कुंकुम-सी देह।
वसन सुशोभित पीत वर्ण वर, अरुण निकुज, भरी नव नेह॥
गीत-वाद्यसे सेवा करती अतिशय सरस सदा अविराम।
नीति-नाट्य-गान्धर्व-शास्त्र-निपुणा रस-‌आचार्या अभिराम॥
सखी ’सुदेवी’ स्वर्ण-वर्ण-सी, वसन सुशोभित मूँगा-रङङ्ग।
कुज हरिद्रा-रंग मनोहर, करती सकल वासना भङङ्ग॥
जल निर्मल पावन सुरभितसे करती जो सेवा अभिराम।
ललित लाडिलीकी जो करती वेणी-रचना परम ललाम॥
(दोहा)
(राग माँड़-ताल कहरवा)
अष्टस्न् सखी करतीं सदा सेवा परम अनन्य।
राधा-माधव-जुगलकी, कर निज जीवन धन्य॥
इनके चरण-सरोज में बारंबार प्रनाम।
करुना कर दें श्रीजुगल-पद-रज-रति अभिराम॥