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संकट काल / नरेन्द्र शर्मा
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जितने वज्र धँसें, उतना ही वक्ष सुदृढ़ सुविशाल बने!
अधिकाधिक सोहे, जो शोणित-श्रमसीकर से भाल सने!
वह भी कैसा मनुज, न उलझाले जो झंझा केशों में,
सह प्रहार फिर मेरुदंड जिसका न और से और तने!
तेजपुंज की जिह्वाओं-सी लपटें देशों देशों में
घोषित करतीं, आए जो भी चाहे जल इन क्लेशों में
सजल स्वर्ण बन जाय, काल इतिहास लिखे जिससे अक्षर!
अब न रहेगा मानव बँट कर, छिप कर भाषा-वेशों में!
अपलक आज समय--सदियाँ शत मौन साध तकतीं निर्भर,
टकराते इस्पाती तट दो--मानवता बह जाय किधर!
सृति में भी गति--भय है उलटी बहे न गंगा की धारा,
रोक प्रगतिरथ भागीरथि का, रुप न जायँ पथ में पत्थर!
रोप रहे पथ में पत्थरि जो, बना रहे तुमको कारा--
बनो आज तूफ़ान कि बाधा-बाँध फाँद चल दे धारा!