संकल्प (1) / अनिरुद्ध प्रसाद विमल
सुनो !
अगर तुम्हारे परमार्थ ने
ले ली है जगह स्वार्थ की
और तुम्हारा हृदय पत्थर का हो गया है
तो मुझे मत जीने दो
मेरे नाम/सौ इल्जाम गढ़ लो
और मुझे ईशु की तरह
सूली पर चढ़ा दो
वैसे भी मेरा दम घुट रहा है
इस मुल्क में
जो तुम्हारी कसती हुई मुट्ठी में
सिमटा चला जा रहा है
और मैं झुलसने लगा हूँ
तुम्हारी कसती हुई मुट्ठियों के ताप से
मैं जानता हूँ
कि मैं तुम्हारे प्रशस्त पथ का काँटा हूँ
तो फिर देर क्यांे ?
तुम्हारे हाथ में तलवार है
(जिसे तुमने मुझसे बनवायी थी)
सुनो, क्या तुम्हारी गोलियाँ
शेश हो गई हैं ?
जो मुल्क में पिरामिड का
निर्माण करती हैं ?
मैं क्या करुँ
मैं लाचार हूँ
कि तुम्हारा साथ नहीं दे पा रहा हूँ
न जाने कब मेरा यह मन
महाभारत का कृश्ण बन गया है
दुर्योधन के उन तमाम साजिशों के खिलाफ
जिसकी नीतियों के पीछे
शकुनी का छल है
दुःशासन का बल है
मैं अपने जन्म से
पांव के नीचे
जमीन नहीं पा रहा हूँ
ऊपर शून्य है
और मैं बीच में
त्रिशंकु की तरह लटका हुआ हूँ
मैंने स्वर्ग पहुँचना चाहा था
(किसी के तप के सहारे)
जो झूठ सिद्ध हुआ
सुनो
अब मेरा निर्णय बदल गया है
मैंने यह जिद्द ठान ली है
कि अपने लिए नहीं
अपने सभी भाइयों के लिए
अब स्वर्ग लेकर ही
धरती पर उतर जाऊँगा