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संकीर्ण समय / सुरेश चंद्रा
Kavita Kosh से
होठ जब आशा बुदबुदा रहे थे
किसी भाषा ने उन्हें नहीं पढ़ा
आँखों की आद्र निराशा से
अजानी रहीं सभी संवेदनाएँ
ठीक उसी समय
मर्म की जिजीविषा के लिये
हमें संसार को ढांढस बंधाना था
स्वतंत्र मस्तिष्क के बंदीग्रह में
लोहे की जंग लगी जंज़ीरों पर
हम पहण्ट रहे थे भोथर चाकू
आस भरे हर श्वास में
थक कर चूर हुए, सदियों के
नींद से बोझल प्रयास में
पर, हमे हर साथी बंदी को
झिंझोरना था, जगाना था
धरते हुये धीर, भरते रहे हरदम
तलाशते रहे, ढूंढते रहे
खाली होता अहम, रिक्त होता वहम
ढ़लते हुये वर्जनाओं की चाक पर हम
अतृप्तता की धुरी पर, परिक्रमा से
बीन रहे थे, डग-डग बिखरी भूख
जिसे फिर चूल्हा जलाना था.