भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
संकुचन / शैलेन्द्र चौहान
Kavita Kosh से
गाँव से क़स्बा,
क़स्बे से शहर
सिकुड़ता गया आसमान
जहाँ कुछ भी नहीं था
वहाँ था दृष्टिपर्यन्त गगन
आँखों में नीले सपने, सम्मोहक!
जहाँ कुछ था
वहाँ ठहरा हुआ था समय
और जहाँ बहुत कुछ था
वहाँ विलुप्त हो चुकी थी
ललक दृष्टि की
समेटने लगा था
सूर्य अपनी बाहें
बिखरने लगे थे
स्वप्न नीलवर्णी।