भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
संक्रांति / धर्मवीर भारती
Kavita Kosh से
सूनी सड़कों पर ये आवारा पाँव
माथे पर टूटे नक्षत्रों की छाँव
कब तक
आखिर कब तक?
चिंतित माथे पर ये अस्तव्यस्त बाल
उत्तर, पच्छिम, पूरब, दक्खिन-दीवाल
कब तक
आख़िर कब तक?
लड़ने वाली मुट्ठी जेबों में बन्द
नया दौर लाने में असफल हर छंद
कब तक?
लेकिन कब तक?