भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

संगीन की नोंक / शरद कोकास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
मैंने फिर सुनी नींद में
गोलियाँ चलने की आवाज़
एक - दो - तीन - चार
पाँच - छह - सात - आठ
मुझे लगा मेरा बच्चा
गुनगुनी धूप में बैठकर
गिनती याद कर रहा है
 
मैंने देखा सपने में
बिखरा हुआ खून
पाँवों में महावर लगाते हुए
शायद पत्नी के हाथ से
कटोरी लुढक गई है
 
बम फटने की आवाज़ें
धुएँ का उठता बवंडर
शायद मोहल्ले के बच्चे
दीवाली की आतिशबाज़ी में व्यस्त हैं
 
फिर ढेर सारी आवाज़ें
भारी भरकम बूटों की
कल मेरा जवान भाई कह रहा था
उसे जाना है सुबह सुबह
परेड की तैयारी में
शायद उसके दोस्त
उसे लेने आए हैं
फिर कुछ औरतें
आँखों में लिए आँसू
पिछले दिनों ही तो मैंने
अपनी लाड़ली बहन को विदा किया है
डोली में बिठाकर
मैंने चाहा बारबार
खोलकर देखूँ अपनी आँखें
निकल आऊँ बाहर
चेतन अचेतन के बीच की स्थिति से
लेकिन नींद में
सुख महसूसने की लालसा में
सच्चाइयाँ खड़ी रहीं पीछे
यकायक संगीन की तेज़ नोक
मेरी सफेद कमीज़ को
सीने से चीरते हुए
पेट तक चली आई
मेरी खुली आँखों के सामने थी
खून के सैलाब में डूबी हुई
मेरी पत्नी की लाश
पहाड़ों की किताब पर
मासूम खून के छींटे
एन सी सी की वर्दी व बूटों से दबी
जवान भाई की देह
फटी अंगिया से झाँकता
इकलौती बहन का मुर्दा शरीर
चीखने चिल्लाने की कोशिश में
मैंने एक बार चाहा
बन्द कर लूँ फिर से अपनी आँखें
और पहुँच जाऊँ कल्पना की दुनिया में
लेकिन मेरा पुरुषत्व
नपुंसकता की हत्या कर चुका था
नोचकर फेंक दी मैंने
अन्धे कुएँ में ले जाने वाली अपनी आँखें
सपनों की दुनिया में भटकाने वाली
अपनी आँखें
सब कुछ देख कर भी
शर्म से झुक जाने वाली
अपनी आँखें
संगीन की नोक
मेरे पेट तक आकर रुक गई है
और मैं नई आँखों से देख रहा हूँ
मेरी कमीज़ का रंग
अब लाल हो चला है।