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संग-साथ / सिद्धेश्वर सिंह
Kavita Kosh से
अन्धेरे में
जब सूझता न हो
हाथ को हाथ
तब तुम रहो संग
चलो साथ-साथ ।
हाथ में हो
तुम्हारा गर्म हाथ
डर जाए डर
भाग जाए भय
ठहर जाए
अदृश्य होने को आकुल
कोई टूटती-सी अधबनी लय ।
भले ही
हो बेहद बेतुका वक़्त
फिर भी
मिल जाए तुक से तुक
साँस की भाप का इंजन
देर तक दूर तक
चलता रहे छुक-छुक।
न दिखे राह
न हो निश्चित गंतव्य
अनवरत
अट्टहास करता रहे गहन अन्धकार
पर रहे यक़ीन
राह दिखाएँगे ढाई अक्षर