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संघर्ष / शिवप्रसाद जोशी
Kavita Kosh से
बचा सको तो बचाओ कल्पना में यथार्थ को
नसों के लोहे में उलझा दो
उस अमूर्तन का धागा, जो जोड़ता है
कविता को संगीत से और
तुम्हें इनसानियत की लड़ाइयों से ।
तुम्हें न दिखे, न सही
न पहचान सको, न सही, फिर भी
उसकी ज़रूरत बनी रहेगी
आततायी के सामने
क़ायम रहेगा कल्पना का यथार्थ
जैसे दुःस्वप्न के सामने दर्शन राग का ।